मन के गाँव के आस पास
मन के गाँव के आस पास
तन के शहरों से कहीं दूर
हम मिलते हैं हर बार राह की खोई सी पहचानों में
जैसे वर्षों बाद प्रवासी फिर लौटे बंद मकानों में
ऐसें हैं सम्बन्ध हमारे जुड़े और अनजुड़े रह गए
आकृतियों के प्रेम समर्पण कागज़ जैसे मुड़े रह गए
मन की छाओं के आस पास
तन के तापों से कहीं दूर
कभी हो गए अजनबी बैठ कर चिरपरिचित इंसानों में
जैसे वर्षों बाद प्रवासी फिर लौटे बंद मकानों में
आखिर क्या है जिसकी खातिर हम तुम आधे और अधूरे
एक उम्र कटी दूसरी आयी तब भी सपन न हुए पूरे
मन के घावों के आस पास
तन की जगहों से कहीं दूर
हम खोज रहे गंतव्य मोह की बाँट ढले ढलानों में
जैसे वर्षों बाद प्रवासी फिर लौटे बंद मकानों में