Mirrors and Echos

Sunday, February 21, 2010

मन के गाँव के आस पास

मन के गाँव के आस पास
तन के शहरों से कहीं दूर
हम मिलते हैं हर बार राह की खोई सी पहचानों में
जैसे वर्षों बाद प्रवासी फिर लौटे बंद मकानों में

ऐसें हैं सम्बन्ध हमारे जुड़े और अनजुड़े रह गए
आकृतियों के प्रेम समर्पण कागज़ जैसे मुड़े रह गए
मन की छाओं के आस पास
तन के तापों से कहीं दूर
कभी हो गए अजनबी बैठ कर चिरपरिचित इंसानों में
जैसे वर्षों बाद प्रवासी फिर लौटे बंद मकानों में

आखिर क्या है जिसकी खातिर हम तुम आधे और अधूरे
एक उम्र कटी दूसरी आयी तब भी सपन न हुए पूरे
मन के घावों के आस पास
तन की जगहों से कहीं दूर
हम खोज रहे गंतव्य मोह की बाँट ढले ढलानों में
जैसे वर्षों बाद प्रवासी फिर लौटे बंद मकानों में

1 Comments:

Blogger D Singh said...

Sirf Hindi mein likha karo .... bahut achhe likhti ho... Dev Chhetri

9:43 PM  

Post a Comment

<< Home