पपीहरा मन
पपीहरा मन
जब हुआ बावरा
आँचल से हर सिँगार झरे
मौलश्री सा महक गया
मन उपवन का कोना कोना
पिय कहाँ?
बासंती बयार ने
विहंस कर पुकारा
लाज से बौरा गयी
आम्र तरु की डाल डाल
स्मृति की दहलीज़ पर
मुस्कुराये इन्द्रधनुषी स्वपन
चंपा की शाख हुआ
देह का कण कण
टेढ़ी मेढ़ी बलखाई पगडण्डी पर
नटखट पायल का गीत
बिखर गया
अल्हड आँचल
जब झरनों की तरुनाई सी
पुष्पों से गुम्फित
कोई टहनी
अनायास पूछ बैठी -
तुम आये क्या?
1 Comments:
oye Iqbal Kaur wonderful hai g...keep rroccking
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