Mirrors and Echos

Sunday, February 14, 2010

पपीहरा मन

पपीहरा मन
जब हुआ बावरा
आँचल से हर सिँगार झरे
मौलश्री सा महक गया
मन उपवन का कोना कोना

पिय कहाँ?
बासंती बयार ने
विहंस कर पुकारा
लाज से बौरा गयी
आम्र तरु की डाल डाल

स्मृति की दहलीज़ पर
मुस्कुराये इन्द्रधनुषी स्वपन
चंपा की शाख हुआ
देह का कण कण

टेढ़ी मेढ़ी बलखाई पगडण्डी पर
नटखट पायल का गीत
बिखर गया
अल्हड आँचल
जब झरनों की तरुनाई सी
पुष्पों से गुम्फित
कोई टहनी
अनायास पूछ बैठी -
तुम आये क्या?




1 Comments:

Blogger RockStar said...

oye Iqbal Kaur wonderful hai g...keep rroccking

3:42 PM  

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