Mirrors and Echos

Sunday, February 21, 2010

मन के गाँव के आस पास

मन के गाँव के आस पास
तन के शहरों से कहीं दूर
हम मिलते हैं हर बार राह की खोई सी पहचानों में
जैसे वर्षों बाद प्रवासी फिर लौटे बंद मकानों में

ऐसें हैं सम्बन्ध हमारे जुड़े और अनजुड़े रह गए
आकृतियों के प्रेम समर्पण कागज़ जैसे मुड़े रह गए
मन की छाओं के आस पास
तन के तापों से कहीं दूर
कभी हो गए अजनबी बैठ कर चिरपरिचित इंसानों में
जैसे वर्षों बाद प्रवासी फिर लौटे बंद मकानों में

आखिर क्या है जिसकी खातिर हम तुम आधे और अधूरे
एक उम्र कटी दूसरी आयी तब भी सपन न हुए पूरे
मन के घावों के आस पास
तन की जगहों से कहीं दूर
हम खोज रहे गंतव्य मोह की बाँट ढले ढलानों में
जैसे वर्षों बाद प्रवासी फिर लौटे बंद मकानों में

Sunday, February 14, 2010

पपीहरा मन

पपीहरा मन
जब हुआ बावरा
आँचल से हर सिँगार झरे
मौलश्री सा महक गया
मन उपवन का कोना कोना

पिय कहाँ?
बासंती बयार ने
विहंस कर पुकारा
लाज से बौरा गयी
आम्र तरु की डाल डाल

स्मृति की दहलीज़ पर
मुस्कुराये इन्द्रधनुषी स्वपन
चंपा की शाख हुआ
देह का कण कण

टेढ़ी मेढ़ी बलखाई पगडण्डी पर
नटखट पायल का गीत
बिखर गया
अल्हड आँचल
जब झरनों की तरुनाई सी
पुष्पों से गुम्फित
कोई टहनी
अनायास पूछ बैठी -
तुम आये क्या?