दूर, पर साथ साथ
भोर के सफ़ेद मखमली कोहरे में
हम एक साथ खड़े थे ।
यह सत्य अंकित है
मेरे स्मृति पटल पर
ज्यों पाषाण पर खुदा
कोई एतहासिक तथ्य ।
अब कोहरा छटने पर
हम सेतु के दो छोरों पर खड़े हैं।
हमारे बीच है
तेज़ बहती धारा
समय की।
जो पुल को अपने साथ
बहा ले गयी है।
अपने बोध में ही तुम
उधर गए हो
या मैं ही स्वप्न में
चल कर इधर आ पहुंची हूँ
कौन बताएगा?
हम कभी फिर मिलेंगे
झूठा है यह विश्वास, आश्वासन।
और यह विश्वास भी कि
शेष होगा कभी सरिता का जल।
आओ हम बहती नदी के
दोनों किनारों पर
चलें यात्रा के अंत तक
दूर, पर साथ साथ।